वेद में नारी का स्थान
मधुरम समय
वेद में नारी का स्थान
सृष्टि के प्रारम्भ में परमेश्वर ने मनुष्यमात्र के लिए जो दिव्यज्ञान प्रदान किया । वही वेद है। - डा0 अन्नपूर्णा
आचार्य पाणिनि के अनुसार वेद शब्द का अर्थः
1. विद सन्तायाम 'दिवादिगण' जिसमें विविध ज्ञान विज्ञान की सत्ता है।
2. विद ज्ञाने 'आदिगण' जिसमें विद्याओं का ज्ञान विद्यमान है।
3. विदलेृ लाभे 'तुदादिगण' जिसमें समस्त श्रेष्ठ प्राप्तियां होती है।
4. विद विचारणे 'रूधादिगण' जिसमें समस्त श्रेष्ठ विचार विद्यमान है।
5. विद चेतनाख्साने निवासेषु 'चुरादिगण' आचार्य जिस ज्ञान के द्वारा शिष्य के अन्दर जागृति उत्पन्न करता है। वह वेद है।
महर्षि मनु कहते है कि:-
''सर्व ज्ञानमयो हि सः''
सर्वकल्याणकारी सर्वज्ञानमय वेदों के अन्दर सभी विषय दृष्टिगोचर होते हैं। वैदिक समाज व्यवस्था के अन्र्तगत सुशिक्षित परिवार भी वेदों में स्पष्ट रूप् में प्रतीत होते हैं।
जैसेः-
''अनुव्रतः पितुः पुत्रः मात्रा भवन्तु संमनाः
जयापत्ये मधुमती वाचं वदतु शान्तिवाम्'' यजुर्वेद
अर्थात् एक उत्तम सुसंस्कार युक्त परिवार के अन्दर पुत्र,पुत्रीयां,माता पिता के आज्ञाकारी तथा अनुकुल वाले होते हैं। पति पत्नी एक दूसरे के प्रति अनुकुल आचरण करें। ऐसे सुन्दर सुशिक्षित परिवार से समाज उन्नत होता है। जब समाज उन्नत होता है तब राष्ट् उन्नत होता है तब विश्व उन्नत होता है। हम एक उन्नत राष्ट् की परिकल्पना तभी कर सकते हैं एवं सुन्दर विश्व की परिकल्पना तभी कर सकते हैं जब विश्व की आधार नारी सुशिक्षित सुशील संस्कारों से युक्त गुणी महीयसी हो। महिला शब्द का अर्थ महिड पूजायाम् अर्थात् जो पूजा के योग्य है। विश्वपति ने विश्व को संचालन करने के लिए नारी एवं पुरूष दोनों का निर्माण किया है, और उन्हें संसार में भेजा है। समाज में न केवल पुरूष की अपितु नारी की भी भूमिका अत्यन्त गौरवमयी वर्णन हम सभी के लिए अत्यन्त गौरव की बात है।
वेदों में नारी, देवी विदुषी सुगृहिणी,कल्याणी,धर्मपत्नी,साम्राज्ञी,शिक्षिका, अध्यापिका कन्यााओं का सदाचार तथा ज्ञान विज्ञान की शिक्षा देने वाली आचार्या उपदेशिका के रूप सबको मार्ग दर्शाने वाली है। वह उच्चकोटि के पशुपालन कृषि तथा उद्योगों में योगदान करने वाली है। शिल्प विद्या को उन्नति कराने वाली है।
वेदों की महिला पूज्या,रमणीया,सुशील, स्तुति यशामयी है। वेदिक नारी का उज्जवल रूप हमारे समक्ष है। अतः जो भी कुछ स्मृति तथा अन्य साहित्यादि पुस्तक में यदि कोई नारी के विषय में हीन वचन मिलता है तो वह तत्कालीन परिस्थिति के कारण हो सकता है। अथवा प्रक्षिप्त भी हो सकता है। क्यांेकि जब वेद प्रमाणित करता है कि नारी का स्थान समाज में सर्वोपरि है यथाः ''अहं केतुरहमुर्धारहमुग्राविवाचनी'' ऋग्वेद
अर्थात एक नारी के द्वारा ये उद्घोषणा की जाती है। मै इस समाज में केतु हूं अर्थात् ध्वजा का स्थान है। शरीर में जैसे मस्तिष्क का स्थान है। वैसे मेरा समाज में स्थान है।
परिवार के समान समाज में नारी की उत्कर्षता देखी जाती है। वेद में तथा वैदिक वाडमय में नारी की उत्कर्षता का वर्णन किया है। नारीयां केवल विदूषी रूप मंे नही अपितु विरांगना के रूप में भी चित्रित हुई हैं।
महर्षि देव दयानन्द ने वेदों के उदाहरण के द्वारा नारी को फिर से ब्रहमा का स्थान दिलवाया। हम सदैव उनके ऋणी रहेंगे।़